लोगों की राय

नारी विमर्श >> हमका दियो परदेस

हमका दियो परदेस

मृणाल पाण्डे

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2818
आईएसबीएन :81-7119-694-2

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

430 पाठक हैं

इसमें एक अकाल-प्रौढ़ लेकिन संवेदनशील बच्ची का चित्रण किया गया है....

Hamka Diyo Pardesh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

घर की बेठी, और उसकी भी बेटी-करेला और नीमचढ़ी इस स्थित से गुजरती अकाल-प्रौढ़ लेकिन संवेदनशील बच्ची की आँखों से देखे संसार के इस चित्रण में हम सभी खुद को कहीं न कहीं पा लेगें।

ख़ास बतरसिया अंदाज़ में कहे गए इन क़िस्सों में कहीं कड़वाहट या विद्वेष नहीं है। बेवजह की चाशनी और वर्क भी नहीं चढ़ाए गए है वैसी हाजिर हैं।

इनकी शैली ऐसी ही है जैसे घर के काम निपटाकर आँगन की धूप में कमर सीधी करती माँ शैतान धूल-भरी बेटी की चपतियाती, धमाके देती, उसकी जूएँ बीनती है।

मृणाल पाण्डे की कलम की संधानी नज़र से कुछ नहीं बच पाता-न कोई प्रसंग, न सम्बन्धों के छद्म। घर के आँगन से कस्बे के जीवन पर रनिंग कमेण्ट्री करती बच्ची है और उसके साथ-साथ उसके देखने के क्षेत्र भी बढ़ता रहता है और उसके साथ ही सम्बन्धों की परतें भी। अन्त तक मृत्यु की आहट भी सुनाई देती है।
बच्चों की दुनिया में ऐसा नहीं होना चाहिए लेकिन होता है-इसीलिए यह किताब....

अथ मयूर कांड

उन दिनों-रात को हम एक लम्बे, खुले बरामदे में सोते, जिसके दोनों छोरों पर जाफरियाँ लगी थीं। मुझे डर लगता रहता कि दीनू, कुक्की और मैं, जाफरी के छेदों में से सरककर नीचे गली में जा गिरेंगे। गली में दिन-भर, अजीब, कुछ डरावने से रिफ्यूजी काफिले गुजरते रहते थे। यह अगस्त, 1947 की बात है। हम दिल्ली में थे।

सेनापति दीन, साढ़े चार बरस की मेरी बड़ी बहन थी। हमारा चचेरा भाई कुक्की पाँच वर्ष का। मोर कांड से उसका कुछ लेना-देना नहीं था, कम-से-कम शुरू में तो। यह हमारे बाबू के भाई का घर था। मेरे चाचा जो कभी भावी चित्रकार और कभी भावी फोटोग्राफर रहे थे, ‘गिल’ के नाम से भी जाने जाते थे क्योंकि मसें फूटने के ज़माने में वे अमृता शेरगिल के बड़े भारी दीवाने रह चुके थे।
हाँ तो मैं कहाँ थी ? याद आया, बरामदे की बात हो रही थी। 1947 के शरद के दिन थे, हमारा चाची का दूसरा बच्चा होनेवाला था। अब भी इतनी गर्मी थी कि उनके अलावा हर कोई खुले में सोना चाहता था। मुझे बस इतना ही याद है कि पानी की चिलमची लिए भागती-दौड़ती एक नर्स हमें भगा रही थी और तभी एक नए जन्मे बच्चे के रोने की आवाज ने मुझे डरा दिया था। उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं।

फिलहाल मैं आपको बरामदे के बारे में और बताती हूँ। बरामदे की दीवारें हरे रंग से पुती थीं और उसके फर्श पर लकड़ी के फट्टे लगे थे, दोनों तरफ लगी जाफरी भी हरे रंग की थी। जाफरी पर पुते पेंट की एक मीठी चिपचिपी सी गन्ध थी। उसकी अधसूखी बूँदें लोहे से लटकी रहती थीं। जब हम इन बूँदों को अपनी उँगलियों के बीच दबाते तो उनमें से ताजे हरे खून जैसी पेंट की एक बूँद निकलती।

बरामदा मुझे डराता था। उसके नीचे से सारा दिन, धूल से अटे रिफ्यूजियों के लम्बे-लम्बे कारवाँ गुजरते चले जाते थे। कुक्की और मेरी बहन कूदते हुए आवाजें लगाते रेफूजी ! रेफूजी !! मैं बोल नहीं पाती थी और न ही सब कुछ देख सकने के लिए भरपूर उचक पाती थी। इसलिए मैं अक्सर बिसूरती हुई अपना सफेद तकिया लिए खड़ी रहती जिस पर मेरी लार चूती रहती थी। रात को मैं अक्सर जाग जाती। इससे माँ बहुत ही खीझतीं। उन्हें खिझाना बहुत आसान था, हमेशा ही।
दीनू वह तार थी जो मुझे सृष्टि से जोड़ता था। वह दिन-भर रेलिंग पर खड़ी रहती और लगातार बोलती जाती। वह मुझ से पूरे तीन साल भी बड़ी नहीं थी लेकिन अभी से ही उसकी पकड़ हर चीज पर थी। मैं जानती हूँ कि यह बेतुकी बात है। लेकिन मेरे लिए उसका कहा ब्रह्मवाक्य था, जब तक कि खसरा कांड हमारे जीवन में न आया।
अब खसरे का किस्सा जानने के लिए हम फास्ट-फॉरवर्ड होकर नैनीताल चलते हैं। नैनीताल जो उत्तर प्रदेश के पहाड़ों में बसा एक कस्बा है।

नैनीताल।
जिस दिन हमारे दादा नहीं रहे, और हमें हमारे नौकर कुशलिया के साथ पहाड़ी की चोटी पर भेज दिया गया था, ताकि हमें पता न चले कि दादा मर गए, तो दीनू ने ही मुझे बताया था कि दादा तो मर गए। हालाँकि मुझे मालूम नहीं था कि इसका क्या मतलब हुआ। लेकिन दीनू की आवाज इतनी गम्भीर थी कि मुझे लगा कि आँसू बहाए जाने जरूरी हैं, और मैंने तुरंत कुछ आँसू बहा दिए।

दीनू का चेहरा दुबला-पीला सा था और उसके घने घुँघराले बाल थे। जब उसने नम हवा में अपना सिर हिलाया तो उसके चौड़े माथे के छोरों पर से लटें ऊपर को उठ गईं और उसके सिर पर एक काले घुँघराले मुकुट की तरह जम गईं। इसलिए उसके बालों के फैलते ही मैं जैसे इशारा सा पाकर रोने लगी और दीनू ने कड़ाई से कहा कि मैं अभी क्या बच्ची ही हूँ ? जब मैं इस पर भी चुप नहीं हुई तो मुझे बहलाने के लिए उसने एक मरी हुई चिड़िया ढूँढ़ निकाली और कहने लगा कि चलो इसे दफनाते हैं। उसने कुशलिया से डंडियाँ ढूँढवाईं जिससे हम चिड़िया को दफनाने के लिए गड्ढा खोद सकें और मुझे बताया कि अब पहले दादा को लाल कपड़े से ढका जाएगा और फिर उन्हें भगवान के पास ले जाया जाएगा, उसके बाद हम कभी उन्हें नहीं देख पाएँगे, इस चिड़िया की ही तरह।
 
यह सुनकर मैं और रोई क्योंकि मुझे दादा और वो मूँगफलियाँ जो वह मुझे खिलाते थे, बहुत अच्छी लगती थीं। हालाँकि दादा की दाढ़ी मुझे हमेशा चुभती थी, पर मैं रोई इसलिए क्योंकि मैं दीनू की कही हर बात पर विश्वास करती थी। उसने मुझे बताया कि हमारे दादा अब सचमुच के देवता बन गए हैं और रात को वह तारा बन जाएँगे, और यह पहाड़ी जिस पर हम खड़े हैं ना, दादा ने ही हमारे लिए बनाई है। उसने बताया कि सब बड़े लोग असल में तो भूत होते हैं जो दिन में दादा, माँ और बाबू के चेहरे लगा लेते हैं और रात को बत्ती बुझते ही चेहरे उतार फेंकते हैं। इस आखिरी बात पर मैं विश्वास नहीं कर पाई, मेरी हिम्मत ही नहीं पड़ी। पर मैंने उससे कई बार यह बात कहलवाई और हर बार मैं मन-ही-मन कहती—
नहीं ! नहीं ! नहीं !

दीनू के पास ऐसी कई डरावनी बातें थीं, पर कई अच्छी-अच्छी बातें भी थीं, जैसे कि उसने हमारे लिए दो बच्चे ढूँढ़ निकाले थे, लक्का और सुन्नी—जो उसके और मेरे बच्चे थे। खाना खाते हुए हम उनकी दुनिया बनाते। भात की ढेरी पहाड़ बनती, उस पर उँडेली दाल ‘उनकी’ नदी और हरी भुज्जी ‘उनके’ पेड़....। हम देर तक इस सब की योजना बनाते और रसोइए कुशल सिंह की खुशामद करके सहजन की फलियाँ और बैंगन के डंठल पकवाते। यह हमारी झूठ-मूठ की मिर्चे होतीं, जिन्हें हो सी-सी करते चबातीं। ताकि लक्का-सुन्नी से कह सकें कि ‘‘नहीं, तुम्हें मिर्चें नहीं मिलेंगी, बाप रे ये तो बहुत तीखी हैं !’’ कभी-कभी जब हम बहुत ही अच्छी बच्चियाँ साबित होतीं तब तो कुशलिया कद्दू के डंठल से हमारे लिए झूठ-मूठ की चिलमें बना देता। उनमें वह अजवायन भरकर ऊपर से अंगारे रखता था ताकि हम भी सचमुच का धुआँ निकाल सकें। हम दादा की नकल करते हुए इन चिलमों को मुट्ठी में दबाकर दम लगाते और खाँसते खों ! खों !’’

हमारे इस कुशल रसोइए कुशलिया की एक सुन्दरी प्रेमिका भी थी, लाल बालों और हरी आँखों वाली मेहतरानी जो शेरकोट, धामपुर की रहनेवाली थी। जब भी हमारे माँ-बाबू नीचे लेट शो की फिल्म देखने जाते, कुशलिया हमें अपनी प्रेमिका के घर ले जाता। वह हमें खाने को गुड़ देती थी और बड़े लोगों के घर लौटने से पहले ही हम घर लौट आते थे। फिर एक बार ऐसा हुआ कि मैं शिशूण की झाड़ी में गिर पड़ी। हमारा भांडा फूट गया और कुशलसिंह को निकाल बाहर किया गया। हमें उसकी बहुत याद आती थी, जब वह गया तो मैं खूब फूट-फूटकर रोई। बाद में उसकी कोठरी से कुछ मनीऑर्डर की रसीदें मिलीं। हर महीने ‘‘तुम्हारा दिवाना-कुशलसिंह’’ ‘‘दिलों की मालिका-सुरैया’’ के नाम पच्चीस रुपए का मनीऑर्डर भेजता रहा था।

हमारा कुशलिया फिल्मों का भारी शौकीन था। कभी शाम को जब हमें भूख न लगती तो कुशलिया गीत गाकर हमें खाना खिलाता। अक्सर मैं बहाना बनाती कि मुझे भूख नहीं है, तब कुशलिया नक्की सुर में दुःख भरे दो गाने गाता। कुशलिया तुकबन्दी में बातें भी कर सकता था। उसके पास एक मन्त्र था जिसे पढ़कर वह रोते हुए बच्चों को हँसा सकता था। वह उसे कहता था : अन्तर मन्तर कुदई का जन्तर।
अब हालाँकि मैं और दीनू कुशलिया को बहुत प्यार करते थे, और लोग उसे जरा भी प्यार नहीं करते थे। जैसेकि एक तो हमारे बाबू ही हुए।

‘‘वो तो पूरा बदमाश था,’’ एक बार बाबू किसी से कह रहे थे। जब मैंने पूछा कि बदमाश का क्या मतलब होता है तो माँ ने बाबू को घूरकर देखा और बाबू ने मुझसे कहा, ‘‘चलती बनो।’’
उन दिनों मैं हमेशा ही शब्दों के अर्थ पूछती रहती थी और हमेशा ही मुझे चलता किया जाता रहता था। इसलिए बाद में जब मैंने पढ़ना सीख लिया तो डिक्शनरियाँ मेरी प्रिय साथी बन गईं। लेकिन उस समय तो मैं समझ नहीं पाई कि क्या करूँ। मैं मन-ही-मन दोहराती रही, बदमाश, बदमाश, बदमाश।
रात को दीनू मुझे चिढ़ा रही थी, तुझे कुछ नहीं पता, बुद्धू’’ मैंने चट से कह दिया, ‘‘बदमाश !’’

वैसे मुझे पता था कि वह ठीक कह रही है, मुझे भी लगता था कि मैं बुद्धू हूँ। उन दिनों मुझे कुछ मालूम नहीं था, मैं छोटी सी और खोई-खोई सी दिखती थी। सब लोग यही कहते थे। मुझे लगता भी था कि मैं छोटी सी और खोई-खोई सी महसूस करती हूँ। उस दिन भी जब हम एक लाल-हरी बस में बैठकर अल्मोड़ा गए और बाबू ने मुझे एक लाल प्लास्टिक का पर्स दिया, मुझे लगा था कि मैं छोटी सी और बुद्धू हूँ। मुझे पता नहीं था कि हम कहाँ जा रहे हैं, या क्यों, या यह कि लाल पर्स का मतलब बाबू से दूर जाना है।



प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai